बुधवार, 14 जनवरी 2009

स्लम डॉग मिलेनियर - आजकल हर जगह इसी फ़िल्म के चर्चे हैं। अगर मैं सही हूँ तो इस अंग्रेजी नाम का हिन्दी होना चाहिए - गली का कुत्ता करोड़पति या फिर गंदी गली का कुत्ता करोड़पति। फ़िल्म बेहतरीन बनी है और इसे अवार्ड मिलना भी शुरु हो चुके हैं। विदेशियों से मिलनेवाले इन अवार्डों की संख्या अभी और बढ़ने की उम्मीद हैं। इस फ़िल्म को देखते हुए कइयों को ये लग सकता हैं कि मैं भी ऐसा ही एक गली का कुत्ता हूँ। लेकिन, बहुत गिने चुनों को ये भी साथ में लगेगा कि मैं करोड़पति भी हूँ। क्योंकि हमारी गलियों में कुत्ते तो बहुत हैं, लेकिन सफल कितने हैं ये पता नहीं...इस फ़िल्म के ज़रिए ये बताया गया हैं कि कैसे गंदी बस्ती में रहनेवाला एक लड़का कौन बनेगा करोड़पति जीतकर रातों रात करोड़पति बन जाता हैं। लेकिन, मेरी सोच मुझे कही ओर ले जाती हैं। हमारे देश में यूँ रातों रात अमीर और मशहूर होने की बात बहुत पुरानी नहीं हैं। कौन बनेगा करोड़पति या फिर इंडियन आइडल जैसी बातें बस कुछ दसेक साल पुरानी ही हैं। इससे पहले यूँ रातों रात सफलता किसी को नहीं मिली। साथ ही ये इन्टेन्ट सफलता लोगों को ग्लैमर के जिलेटिन में लिपटी हुई मिलती हैं। जहाँ लोगों को देश की आवाज़ और हार्ट थ्रोब और ऐसे ही बड़े-बड़े नामों से पुकारा जाता हैं। लेकिन, टीवी से गायब हो जाने के बाद इन लोगों का क्या होता हैं कोई नहीं जानता हैं। जैसे ही सीज़न टू स्टार्ट होता हैं, नई खेप देश की आवाज़ और हार्ट थ्रोब हो जाती हैं। वैसे भी अगर इस ग्लैमरस जिलेटिन में लिपटे कामयाब लोगों की लिस्ट तैयार की जाए तो शायद ही दो से ज्यादा लोगों के नाम याद आए। करत करत अभ्यास से जड़मति होत सुजान जैसे जुमले अब किसी को पसंद नहीं। अब तो गायक बनने के लिए आपको लुक इम्प्रोवाइज़ करना पड़ता हैं, मेक ओवर करना पड़ता हैं। अब अभ्यास कोई नहीं करना चाहता हैं। इंतज़ार का फल मीठा होता हैं। लेकिन, आज भले ही खट्टा फल मिले बस हमें जल्दी मिल जाएं। सभी होड़ में हैं इन्टेन्ट सफलता के.... अपने एक कार्यक्रम के दौरान मेरा मिलना एक ऐसे व्यक्ति से हुआ जोकि 8 बार फेल होने के बाद जज बना। इस दूध बेचनेवाले के बेटे से जब हम मिलने गए तो वो दूध बेचकर लौट रहा था। चेहरे पर एक भी शिकन नहीं थी। बातचीत के दौरान एक भी बार ये नहीं लगा कि वो फ़्रेटेशन में है। खुश मिजाज़ हंसता मुस्कुराता आदमी। बेहद खुश कि उसकी मेहनत रंग ले आई। शायद किसी दिन किसान का ये बेटा भी स्लम डॉग से उठकर देश के पीड़ितों को न्याय दिलानेवालों में से एक बन जाएगा। लेकिन, उसकी ये सफलता विशुद्ध मेहनत की कमाई होगी। ऐसी ही है रानी। जोकि अपनी माँ के साथ दिल्ली के ट्रैफ़िक सिग्नलों पर बैठकर गुब्बारे बेचती थी। लेकिन, आज वो लड़की एक गैरसरकारी संस्था के साथ मिलकर स्लम में रहने वाले बच्चों को पढ़ाती हैं। बातचीत के दौरान कभी भी उसके चेहरे पर शिकन नज़र नहीं आई। बीच में ज़रूर उसने कहा कि मैं ऐसा क्या कर रही हूँ जोकि मुझे कोई देखे। इंडियन आइडल और रोडिज़ के ज़रिए सफल और लोकप्रिय होने की चाहत रखने वाले मेरे साथी शायद ही रेखा और लोकेश से प्रेरित हो। फ़िल्म बेहतरीन हैं लेकिन वो भी कही न कही युवा वर्ग के मन में फ़ेन्टेसी लैन्ड बना देती हैं। फ़िल्म की इसमें कोई गलती भी नहीं है आखिर वो अपने आप में एक कहानी है जोकि काल्पनिक होती ही हैं। लेकिन, गूढ़ बात ये हैं कि ये कहानी असलियत से प्रेरित से। और, ये असलियत इतनी खोखली है कि वो इंसान को खुद में कुछ ऐसे निगल जाती हैं जैसे कि कोई ब्लैक होल। स्लम डॉग मिलेनियर हो या फिर फैशन, ये फ़िल्में न सिर्फ़ व्यवसायिक रूप से सफल हैं बल्कि आँखें खोलने वाली भी हैं। हालांकि पता नहीं कितनों ने फ़ैशन में प्रियंका के किरदार के कपड़े और लुक को याद रखा और कितनों ने उसके स्ट्रगल और ज़िदगी के थपेड़ों को। आखिर मेंमेरी नज़रों में पटना के सुपर 30 में पढ़ाई कर आईआईटी तक पहुंचे बच्चे या फिर रेखा और लोकेश की तरह मेहनतकश स्लम डॉग ही असली मिलेनियर हैं। भले ही उन्हें पूरा जीवन लगा देने पड़े करोड़ रुपए कमाने में। लेकिन, कमाई की एक-एक पाई उनकी मेहनत की होगी बिना किसी ग्लैमरस और लीजलिजी जिलेटिन के...

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