बुधवार, 14 जनवरी 2009


सेक्स पर बात??? भई हमारे बच्चों को न बिगाड़े...
एड्स दिवस पर
टीवी पर विज्ञापन आता है कि एक बाप अपने बेटे से शारीरिक संबंधों के दौरान बरती जानेवाली सावधानियों पर कैसे बात की जाए इसकी रिहर्सल कर रहा है। ऐसा ही एक और विज्ञापन जहाँ एड्स से जुड़ा एक विज्ञापन टीवी पर आता है एक परिवार बैठकर टीवी देख रहा हैं। माँ, बाप और दो बच्चे एक लड़का एक लड़की। टीवी पर ये विज्ञापन देखते ही पिता दोनों बच्चों को बहाने से दूसरे कमरों में भेज देता है और टीवी का चैनल बदल दिया जाता है। असलियत में चैनल उन दोनों विज्ञापनों को देखकर हमारे घरों में भी बदल दिए जाते हैं। कंडोम का विज्ञापन हो या सैनिटरी नैप्किन का। चैनल हर बार बदले जाते हैं। बावजूद इसके एड्स के प्रति लोगों को जागरूक बनाने के लिए सरकारी और गैरसरकारी संस्थाएं कई मुहीम चला रही हैं। उसी में से एक थी रेड रिबिन एक्सप्रेस। लोगों में एड्स के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए पिछले साल दिल्ली के सफ़दरजंग स्टेशन से ये ट्रेन रवाना की गई थी। जिसका मक़सद पूरे देश में घूमकर लोगों के बीच इस बीमारी के बारे में जागरूकता फैलाना था। ये ट्रेन 28 तारीख को दिल्ली वापस आ गई। ट्रेन का स्वागत भी भव्य रूप से किया गया। इस दौरान कुछ रेल्वे कर्मचारियों ने एक नुक्कड़ नाटक भी किया। कुछ एड़्स पीड़ित महिलाओं ने भी एक नाटक के ज़रिए अपनी व्यथा बताई। कई एनजीओ के लोग शामिल हुए। ट्रेन को देखकर सचमुच लगा कि ज्ञान का भंडार है ये। लेकिन, ये बात खली कि यहाँ आए नौजवान और बच्चे इसे अकेले ही देखकर समझने की कोशिश कर रहे थे। लगाकि, इनके साथ इनके माँ-बाप को खड़ा होना चाहिए था।हमारे देश के माँ-बाप आज तक ये सोचते हैं कि उनके बच्चे शादी होने तक वरज़ीन ही रहे और यहाँ तक कि वो ये जान या समझ भी न पाए शारिरीक संबंधों के बारे में, जब तक की उनकी शादी न हो जाए। आज विश्व एड्स दिवस है। आज के दिन अखबार और इंटरनेट एड्स के भारत में ताज़ा आंकड़ों से अटे पड़े हैं। चिंता जताई जा रही है, दिनोंदिन बढ़ रही एड्स रोगियों की संख्या पर। लेकिन, ऐसे में एक और सर्वे की ज़रूरत महसूस हो रही है। ये सर्वे जो 15 से 28 साल के युवाओं के माता-पिता के बीच करवाया जाए। कितने माँ-बाप अपने बच्चों से इस बारे में खुलकर बात करते हैं। एड्स और भी तरीक़ों से फैलता है, लेकिन असुरक्षित यौन संबंध सबसे बड़ी वजह है। कितने माँ-बाप ये मानते हैं। कितने माता-पिता लड़कियों से उनकी महावारी शुरु होने पर इस बारे में बात करते है। कितने पहले से उन्हें आगाह करके रखते हैं। कितने उन्हें ये समझाते है कि ये क्यों हो रहा हैं। कितने ऐसे है जो लड़कों को उनके बदलते शरीर से एक बार फिर रू-ब-रू करवाते हैं। लड़कियों की बुरी हालत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि – स्कूल में मेरी एक टीचर ने अपने अनुभव क्लास में बाँटते हुए ये बताया था कि उन्हें उनकी शादी के एक दिन पहले ये पता लगा था कि शारीरिक संबंध कैसे स्थापित होते हैं। वो इतनी डर गई थी कि उन्होंने शादी करने से तक मनाकर दिया था...आज हालत सुधरे नहीं हैं। आज भी माँ-बाप बच्चों से इस बारे में कोई बात नहीं करते हैं। हाँ, अब बच्चे ज़रूर अपने दम पर ये सब पता लगा लेते हैं। वो चाहे साथी हो, इंटरनेट हो या फ़िल्में हो। इनसे मिलनेवाला अधकचरा ज्ञान उनके मन में शारीरिक संबंधों को एक रूप देता है। और, यही से शुरु होती हैं गल्तियाँ... ये सारे आंकड़ें, ये सारी बहस, ये सारे कार्यक्रम बेमानी है जब तक की घर में बच्चों को इस बारे में प्राथमिक ज्ञान मुहैया न करवाया जाए।
Posted by Dipti at 1:30 PM 4 comments
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Friday, 28 November, 2008

सोच समझ को छीनता ये हादसा...
कल सुबह से... जब से ख़बर देखी है... लगातार इसे देख रही हूँ... एक के बाद एक ब्रेकिंग न्यूज़... ब्रेकिंग न्यूज़... ब्रेकिंग न्यूज़... इतनी ब्रेकिंग न्यूज़ के बीच में दिमाग ब्रेक होता लगा रहा है। क्या हो रहा है, अब आगे क्या होगा, किसने क्या किया, कौन निक्कमा, कौन शातिर, कितने मरे... अब क्या होगा... आगे क्या...इस बीच दिमाग में ज्वार भाटे की तरह विचार आते रहे जाते रहे। कभी लगाकि सब्र रखो सब ठीक होगा, फिर अगले ही पल टीवी देख आँसू टपकने लगे, फिर लगाकि सभी असुरक्षित है, फिर लगाकि कुछ लगने लायक ही नहीं रहे हम...

नीचे लिखी मेरी सोच उसी ज्वार भाटे का नतीज़ा है...तकनीक के मामले में भारतीय शायद उतने फीसड्डी नहीं रहे हैं जितने की पहले थे। लेकिन, ये तकनीकी ज्ञान और तकनीकी उपकरण काम किसके आ रहे हैं ये सोचनेवाली बात हैं। 26 नवंबर की रात से मुंबई में हो रही गोलीबारी का सीधा प्रसारण चल रहा है। कितने कमान्डो आए, कहाँ गए, क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है। हर घटना का सीधा प्रसारण। होटलों के आसपास तैनात सुरक्षाकर्मी लगातार अपील कर रहे हैं कि ये सब मत दिखाइए। लोकिन, मीडिया ये बात भी दिखा रहा है कि वो हमें मनाकर रहे हैं। हर बात जनता पहुंचाते हम सबसे बेहतर... अगर कोई एक थोड़ी देर के लिए ये मान भी लेता है कि अच्छा चलो हम नहीं दिखाते तो दर्शक बस चैनल बदल लेता हैं। क्योंकि अगली जगह तो दिखाई दे ही रहा होगा। मुझे नहीं पता कि आतंकी इस प्रसारण का कितना फायदा उठा सकते हैं, उठा सकते भी हैं या नहीं। लेकिन, सुरक्षा बल का कहना यही है कि मत दिखाइए। लेकिन, चैनल बेबस है। टीआरपी का कीड़ा जो एक बार काट ले तो वो दर्द हमेशा रहता है। फिर बढ़िया विजुअल पर ही तो अगली बार का चैनल प्रोमो बनना है। ये सारे दुख दूसरे क्या पहचाने...
इस सब के बीच एक ख़बर मेरे घर की तरफ से आई कि एक रिश्तेदार की सीएसटी पर हुई गोलीबारी में मौत हो गई। वो रेल्वे में टीसी थे। गोलियाँ लगी और उसी जगह उनकी मौत हो गई। ख़बर सुनकर एकदम आँखों में आंसू आ गए। दुख भी हुआ। फिर अपने कामों में उलझ गई। लगातार टीवी पर चल रही ख़बर ने कुछ भी भूलने न दिया। तब से लेकर अब तक मैं यही सोच रही हूँ कि जब तक मुझे अपने रिश्तेदार की मौत का पता नहीं लगा था मरनेवाले मेरे लिए संख्या थे, आंकड़ें थे। लेकिन, अब इस हादसे में मर रहे है हर व्यक्ति से एक जुड़ाव लग रहा है। शर्म भी आई अपनी इस सोच पर की जब ख़ुद पर बीती तो लगा कि क्या होता है किसी का मरना। फिर रात को एनडीटीवी पर 9 बजे के कार्यक्रम में पूर्व रॉ प्रमुख की बात ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया। सुरक्षा एजेन्सी की हार को वो मानते है लेकिन, साथ ही उन्होंने कहा कि क्या आप जानते हैं कि हम कितनी बार कामयाब भी हुए हैं। सच भी है कि जब कोई हादसा टल जाता है तो वो महज एक कॉलम की ख़बर बन कर रह जाता है। उससे ज़्यादा कुछ नहीं।फिर याद आई राज ठाकरे की। आखिर कहाँ है राज ठाकरे मुंबई तो उनकी है तो वो क्यों नहीं आ रहे हैं आगे गोलियाँ खाने के लिए, उन आतंकियों को मारने के लिए। कहाँ गए वो लोग जो मुंबई में भईया लोगों को घुसने नहीं देना चाहते हैं। आतंकी क्या उन्हें मंजूर है मुंबई में... इस विवाद में भईयाओं को मारनेवाले कुछ-कुछ ऐसे ही हैं जैसे गली मोहल्ले में कुछ टुट्पुन्जिया से गुंडे होते है। जो लड़की को छेड़ते तो हैं लेकिन, जैसे ही वो पलटकर देखती है डर के मारे भाग जाते हैं...इस वक़्त भी मेरे चारों ओर टीवी चल रहे हैं। यही ख़बरें... ब्रेकिंग न्यूज़... सीएसटी पर फिर गोलीबारी... ब्रेकिंग न्यूज़... ऑबेरॉय के रेस्टॉरेन्ट में सभी लोग मारे गए... ब्रेकिंग न्यूज़... ब्रेकिंग न्यूज़...
Posted by Dipti at 1:35 PM 3 comments
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Thursday, 27 November, 2008

देश के इस हालात की ज़िम्मेदार मैं भी???

सुबह हुई। अलार्म बजा। उठी। मुंह धोया। और, रोज़ाना की तरह टीवी ऑन किया। मुंबई की ख़बर देखकर ही सोयी थी। लेकिन, ये नहीं सोचा था कि वो सुबह कुछ यूँ हो जाएगी। मुंबई में रह रही मेरी दोस्त को फोन घुमाया, उसकी खैर-ख़बर ली। वो बीएसई में काम करती है। ठीक थी वो। फिर टीवी का वॉल्यूम हाई करके ऑफ़िस की तैयारी करने लगी। पूरे एक घंटे तक ये सब देखने के बाद ख्याल आया आज तो मध्यप्रदेश में चुनाव है। फिर लगा क्यों वोट दे। इस सब के लिए। ऐसी घटनाओं के लिए चुनें सरकार। हमेशा की तरह उलझन के वक़्त पापा की याद आ गई। फोन लगाया। ये सोचकर कि बोलूंगी पापा अब भी आप वोट देने जाओगें क्या... ये सरकारें क्या कर रही हैं हमारे लिए। हम तो यूँ ही मरते रहेगें।फोन मम्मी ने उठाया।मैंने पूछा वोट डालने जा रहे हो आप लोग...मम्मी ने कहा - हाँ अब जाएगें। बस थोड़ी देर में।मैंने पूछा - टीवी पर देखा मुंबई का हाल...मम्मी ने कहा - हाँ देख ही रहे हैं।मैंने पूछा - फिर भी वोट डालने जा रहे हो...मम्मी ने हंसते हुए बड़ी सरलता से कहा - हर अच्छी और बुरी घटना के ज़िम्मेदार हम ही तो हैं। आखिर ये लोकतंत्र है। हमने ही चुना इन लोगों को, हम में से ही एक हैं ये नेता और वो पुलिसवाले और वहाँ फंसे लोग। वोट न देकर एक और गलती तो नहीं कर सकते हैं। अपनी ज़िम्मेदारी से यूँ कैसे मुंह मोड़ ले बेटा...मैं कुछ नहीं बोल पाई...
Posted by Dipti at 11:20 AM 4 comments
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Saturday, 22 November, 2008

महिला: महिला की दुश्मन?
महिलाओं के साथ होनेवाले दुर्व्यवहार रोज़ना ही ख़बरों में सुर्ख़ियाँ और अख़बारों की बॉक्स ख़बर बनते रहते हैं। कभी महिला को ब्लात्कार कर मारा जाता है, कभी घरेलू हिंसा, तो कभी प्यार या इज़्जत के नाम पर महिलाओं की बलि। फ़िलवक़्त ही मोहल्ला पर राजकिशोरजी का एक लेख पढ़ा वर्ग एकता का एक नमूना। जोकि एक शिक्षक के पीछे छिपे दानव को उजागर कर रहा है। प्रताड़ना महज शारीरिक नहीं होती है मानसिक भी होती है। और, मानसिक प्रताड़ना के घाव गहरे तो होते हैं, लेकिन नज़र नहीं आते हैं। लेकिन, इस तरह की अमानवीय घटनाओं को हम कही न कही जीवन का हिस्सा मानते जा रहे हैं। दीप्ति की पिछली पोस्ट पर आए कमेन्ट भी उसे यही समझा रहे थे कि इस तरफ मत ध्यान दो और लिखते रहो। ये बात सही भी है। किसी की विकृत मानसिकता के चलते हम जीना नहीं छोड़ सकते। लेकिन, साथ ही ज़रूरत है ऐसे मानसिक रोगियों से निपटने की। और ऐसे वहशियों से निपटने जो महिलाओं को तरह-तरह से शारीरिक रूप से प्रताड़ित करते हैं। मेरे इस लेख में महिलाओं के लिए सहानुभूति के साथ-साथ उनसे एक सवाल भी है। ज़माने से ये बात चली आ रही है कि महिला ही महिला की दुश्मन होती है। क्या ये बात सही हैं। आज सुबह अखबार में जब उड़ीसा की इस ख़बर पर नजर गई तो रूह काँप गई... महिलाओं ने अपनी ही चुनी हुई महिला सरपंच को नंगा कर दौड़ाया.. घटना उड़ीसा के बरगढ़ जिले के चिरौली गांव की है। सड़क निर्माण के काम का जायजा लेने गई महिला सरपंच से कुछ स्वयं सहायता समूह की महिला कार्यकर्ताओं से बहस हो गई.. और इन महिलाओं ने महिला सरपंच के कपड़े उतार दिए.. पीड़ित महिला ने किसी तरह एक घर में घुस कर अपनी लाज बचाई। इस ख़बर को पढ़ने से लगा की क्या हो गया है हमारे समाज को.. किस दिशा में जा रहा है हमारा समाज। कई पुरुषों को तो इस बात का दंभ है ही कि वो बेहतर है। और, यही वजह है कि महिलाओं पर पुरुषों के अत्याचार और अन्याय की बातें आम हो गई है। लेकिन, इस तरह से महिलाओं का ही महिला के साथ दुर्व्यवहार... ये किस बात को प्रदर्शित करता है... इस हालत में एक दूसरे का साथ देने के बजाय इस तरह की घटनाएँ बेहद शर्मनाक है।

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