रविवार, 20 जून 2010

शुक्रवार, 16 जनवरी 2009

भड़ास: भारत नरम पड़ा

भड़ास: भारत नरम पड़ा
aalekh me behad dam hai, sach likhna aur ushe duniya ke samne lana acchi bat hai lekhak ke is jajbe ko humara salam

बुधवार, 14 जनवरी 2009


सेक्स पर बात??? भई हमारे बच्चों को न बिगाड़े...
एड्स दिवस पर
टीवी पर विज्ञापन आता है कि एक बाप अपने बेटे से शारीरिक संबंधों के दौरान बरती जानेवाली सावधानियों पर कैसे बात की जाए इसकी रिहर्सल कर रहा है। ऐसा ही एक और विज्ञापन जहाँ एड्स से जुड़ा एक विज्ञापन टीवी पर आता है एक परिवार बैठकर टीवी देख रहा हैं। माँ, बाप और दो बच्चे एक लड़का एक लड़की। टीवी पर ये विज्ञापन देखते ही पिता दोनों बच्चों को बहाने से दूसरे कमरों में भेज देता है और टीवी का चैनल बदल दिया जाता है। असलियत में चैनल उन दोनों विज्ञापनों को देखकर हमारे घरों में भी बदल दिए जाते हैं। कंडोम का विज्ञापन हो या सैनिटरी नैप्किन का। चैनल हर बार बदले जाते हैं। बावजूद इसके एड्स के प्रति लोगों को जागरूक बनाने के लिए सरकारी और गैरसरकारी संस्थाएं कई मुहीम चला रही हैं। उसी में से एक थी रेड रिबिन एक्सप्रेस। लोगों में एड्स के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए पिछले साल दिल्ली के सफ़दरजंग स्टेशन से ये ट्रेन रवाना की गई थी। जिसका मक़सद पूरे देश में घूमकर लोगों के बीच इस बीमारी के बारे में जागरूकता फैलाना था। ये ट्रेन 28 तारीख को दिल्ली वापस आ गई। ट्रेन का स्वागत भी भव्य रूप से किया गया। इस दौरान कुछ रेल्वे कर्मचारियों ने एक नुक्कड़ नाटक भी किया। कुछ एड़्स पीड़ित महिलाओं ने भी एक नाटक के ज़रिए अपनी व्यथा बताई। कई एनजीओ के लोग शामिल हुए। ट्रेन को देखकर सचमुच लगा कि ज्ञान का भंडार है ये। लेकिन, ये बात खली कि यहाँ आए नौजवान और बच्चे इसे अकेले ही देखकर समझने की कोशिश कर रहे थे। लगाकि, इनके साथ इनके माँ-बाप को खड़ा होना चाहिए था।हमारे देश के माँ-बाप आज तक ये सोचते हैं कि उनके बच्चे शादी होने तक वरज़ीन ही रहे और यहाँ तक कि वो ये जान या समझ भी न पाए शारिरीक संबंधों के बारे में, जब तक की उनकी शादी न हो जाए। आज विश्व एड्स दिवस है। आज के दिन अखबार और इंटरनेट एड्स के भारत में ताज़ा आंकड़ों से अटे पड़े हैं। चिंता जताई जा रही है, दिनोंदिन बढ़ रही एड्स रोगियों की संख्या पर। लेकिन, ऐसे में एक और सर्वे की ज़रूरत महसूस हो रही है। ये सर्वे जो 15 से 28 साल के युवाओं के माता-पिता के बीच करवाया जाए। कितने माँ-बाप अपने बच्चों से इस बारे में खुलकर बात करते हैं। एड्स और भी तरीक़ों से फैलता है, लेकिन असुरक्षित यौन संबंध सबसे बड़ी वजह है। कितने माँ-बाप ये मानते हैं। कितने माता-पिता लड़कियों से उनकी महावारी शुरु होने पर इस बारे में बात करते है। कितने पहले से उन्हें आगाह करके रखते हैं। कितने उन्हें ये समझाते है कि ये क्यों हो रहा हैं। कितने ऐसे है जो लड़कों को उनके बदलते शरीर से एक बार फिर रू-ब-रू करवाते हैं। लड़कियों की बुरी हालत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि – स्कूल में मेरी एक टीचर ने अपने अनुभव क्लास में बाँटते हुए ये बताया था कि उन्हें उनकी शादी के एक दिन पहले ये पता लगा था कि शारीरिक संबंध कैसे स्थापित होते हैं। वो इतनी डर गई थी कि उन्होंने शादी करने से तक मनाकर दिया था...आज हालत सुधरे नहीं हैं। आज भी माँ-बाप बच्चों से इस बारे में कोई बात नहीं करते हैं। हाँ, अब बच्चे ज़रूर अपने दम पर ये सब पता लगा लेते हैं। वो चाहे साथी हो, इंटरनेट हो या फ़िल्में हो। इनसे मिलनेवाला अधकचरा ज्ञान उनके मन में शारीरिक संबंधों को एक रूप देता है। और, यही से शुरु होती हैं गल्तियाँ... ये सारे आंकड़ें, ये सारी बहस, ये सारे कार्यक्रम बेमानी है जब तक की घर में बच्चों को इस बारे में प्राथमिक ज्ञान मुहैया न करवाया जाए।
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Friday, 28 November, 2008

सोच समझ को छीनता ये हादसा...
कल सुबह से... जब से ख़बर देखी है... लगातार इसे देख रही हूँ... एक के बाद एक ब्रेकिंग न्यूज़... ब्रेकिंग न्यूज़... ब्रेकिंग न्यूज़... इतनी ब्रेकिंग न्यूज़ के बीच में दिमाग ब्रेक होता लगा रहा है। क्या हो रहा है, अब आगे क्या होगा, किसने क्या किया, कौन निक्कमा, कौन शातिर, कितने मरे... अब क्या होगा... आगे क्या...इस बीच दिमाग में ज्वार भाटे की तरह विचार आते रहे जाते रहे। कभी लगाकि सब्र रखो सब ठीक होगा, फिर अगले ही पल टीवी देख आँसू टपकने लगे, फिर लगाकि सभी असुरक्षित है, फिर लगाकि कुछ लगने लायक ही नहीं रहे हम...

नीचे लिखी मेरी सोच उसी ज्वार भाटे का नतीज़ा है...तकनीक के मामले में भारतीय शायद उतने फीसड्डी नहीं रहे हैं जितने की पहले थे। लेकिन, ये तकनीकी ज्ञान और तकनीकी उपकरण काम किसके आ रहे हैं ये सोचनेवाली बात हैं। 26 नवंबर की रात से मुंबई में हो रही गोलीबारी का सीधा प्रसारण चल रहा है। कितने कमान्डो आए, कहाँ गए, क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है। हर घटना का सीधा प्रसारण। होटलों के आसपास तैनात सुरक्षाकर्मी लगातार अपील कर रहे हैं कि ये सब मत दिखाइए। लोकिन, मीडिया ये बात भी दिखा रहा है कि वो हमें मनाकर रहे हैं। हर बात जनता पहुंचाते हम सबसे बेहतर... अगर कोई एक थोड़ी देर के लिए ये मान भी लेता है कि अच्छा चलो हम नहीं दिखाते तो दर्शक बस चैनल बदल लेता हैं। क्योंकि अगली जगह तो दिखाई दे ही रहा होगा। मुझे नहीं पता कि आतंकी इस प्रसारण का कितना फायदा उठा सकते हैं, उठा सकते भी हैं या नहीं। लेकिन, सुरक्षा बल का कहना यही है कि मत दिखाइए। लेकिन, चैनल बेबस है। टीआरपी का कीड़ा जो एक बार काट ले तो वो दर्द हमेशा रहता है। फिर बढ़िया विजुअल पर ही तो अगली बार का चैनल प्रोमो बनना है। ये सारे दुख दूसरे क्या पहचाने...
इस सब के बीच एक ख़बर मेरे घर की तरफ से आई कि एक रिश्तेदार की सीएसटी पर हुई गोलीबारी में मौत हो गई। वो रेल्वे में टीसी थे। गोलियाँ लगी और उसी जगह उनकी मौत हो गई। ख़बर सुनकर एकदम आँखों में आंसू आ गए। दुख भी हुआ। फिर अपने कामों में उलझ गई। लगातार टीवी पर चल रही ख़बर ने कुछ भी भूलने न दिया। तब से लेकर अब तक मैं यही सोच रही हूँ कि जब तक मुझे अपने रिश्तेदार की मौत का पता नहीं लगा था मरनेवाले मेरे लिए संख्या थे, आंकड़ें थे। लेकिन, अब इस हादसे में मर रहे है हर व्यक्ति से एक जुड़ाव लग रहा है। शर्म भी आई अपनी इस सोच पर की जब ख़ुद पर बीती तो लगा कि क्या होता है किसी का मरना। फिर रात को एनडीटीवी पर 9 बजे के कार्यक्रम में पूर्व रॉ प्रमुख की बात ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया। सुरक्षा एजेन्सी की हार को वो मानते है लेकिन, साथ ही उन्होंने कहा कि क्या आप जानते हैं कि हम कितनी बार कामयाब भी हुए हैं। सच भी है कि जब कोई हादसा टल जाता है तो वो महज एक कॉलम की ख़बर बन कर रह जाता है। उससे ज़्यादा कुछ नहीं।फिर याद आई राज ठाकरे की। आखिर कहाँ है राज ठाकरे मुंबई तो उनकी है तो वो क्यों नहीं आ रहे हैं आगे गोलियाँ खाने के लिए, उन आतंकियों को मारने के लिए। कहाँ गए वो लोग जो मुंबई में भईया लोगों को घुसने नहीं देना चाहते हैं। आतंकी क्या उन्हें मंजूर है मुंबई में... इस विवाद में भईयाओं को मारनेवाले कुछ-कुछ ऐसे ही हैं जैसे गली मोहल्ले में कुछ टुट्पुन्जिया से गुंडे होते है। जो लड़की को छेड़ते तो हैं लेकिन, जैसे ही वो पलटकर देखती है डर के मारे भाग जाते हैं...इस वक़्त भी मेरे चारों ओर टीवी चल रहे हैं। यही ख़बरें... ब्रेकिंग न्यूज़... सीएसटी पर फिर गोलीबारी... ब्रेकिंग न्यूज़... ऑबेरॉय के रेस्टॉरेन्ट में सभी लोग मारे गए... ब्रेकिंग न्यूज़... ब्रेकिंग न्यूज़...
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Thursday, 27 November, 2008

देश के इस हालात की ज़िम्मेदार मैं भी???

सुबह हुई। अलार्म बजा। उठी। मुंह धोया। और, रोज़ाना की तरह टीवी ऑन किया। मुंबई की ख़बर देखकर ही सोयी थी। लेकिन, ये नहीं सोचा था कि वो सुबह कुछ यूँ हो जाएगी। मुंबई में रह रही मेरी दोस्त को फोन घुमाया, उसकी खैर-ख़बर ली। वो बीएसई में काम करती है। ठीक थी वो। फिर टीवी का वॉल्यूम हाई करके ऑफ़िस की तैयारी करने लगी। पूरे एक घंटे तक ये सब देखने के बाद ख्याल आया आज तो मध्यप्रदेश में चुनाव है। फिर लगा क्यों वोट दे। इस सब के लिए। ऐसी घटनाओं के लिए चुनें सरकार। हमेशा की तरह उलझन के वक़्त पापा की याद आ गई। फोन लगाया। ये सोचकर कि बोलूंगी पापा अब भी आप वोट देने जाओगें क्या... ये सरकारें क्या कर रही हैं हमारे लिए। हम तो यूँ ही मरते रहेगें।फोन मम्मी ने उठाया।मैंने पूछा वोट डालने जा रहे हो आप लोग...मम्मी ने कहा - हाँ अब जाएगें। बस थोड़ी देर में।मैंने पूछा - टीवी पर देखा मुंबई का हाल...मम्मी ने कहा - हाँ देख ही रहे हैं।मैंने पूछा - फिर भी वोट डालने जा रहे हो...मम्मी ने हंसते हुए बड़ी सरलता से कहा - हर अच्छी और बुरी घटना के ज़िम्मेदार हम ही तो हैं। आखिर ये लोकतंत्र है। हमने ही चुना इन लोगों को, हम में से ही एक हैं ये नेता और वो पुलिसवाले और वहाँ फंसे लोग। वोट न देकर एक और गलती तो नहीं कर सकते हैं। अपनी ज़िम्मेदारी से यूँ कैसे मुंह मोड़ ले बेटा...मैं कुछ नहीं बोल पाई...
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Saturday, 22 November, 2008

महिला: महिला की दुश्मन?
महिलाओं के साथ होनेवाले दुर्व्यवहार रोज़ना ही ख़बरों में सुर्ख़ियाँ और अख़बारों की बॉक्स ख़बर बनते रहते हैं। कभी महिला को ब्लात्कार कर मारा जाता है, कभी घरेलू हिंसा, तो कभी प्यार या इज़्जत के नाम पर महिलाओं की बलि। फ़िलवक़्त ही मोहल्ला पर राजकिशोरजी का एक लेख पढ़ा वर्ग एकता का एक नमूना। जोकि एक शिक्षक के पीछे छिपे दानव को उजागर कर रहा है। प्रताड़ना महज शारीरिक नहीं होती है मानसिक भी होती है। और, मानसिक प्रताड़ना के घाव गहरे तो होते हैं, लेकिन नज़र नहीं आते हैं। लेकिन, इस तरह की अमानवीय घटनाओं को हम कही न कही जीवन का हिस्सा मानते जा रहे हैं। दीप्ति की पिछली पोस्ट पर आए कमेन्ट भी उसे यही समझा रहे थे कि इस तरफ मत ध्यान दो और लिखते रहो। ये बात सही भी है। किसी की विकृत मानसिकता के चलते हम जीना नहीं छोड़ सकते। लेकिन, साथ ही ज़रूरत है ऐसे मानसिक रोगियों से निपटने की। और ऐसे वहशियों से निपटने जो महिलाओं को तरह-तरह से शारीरिक रूप से प्रताड़ित करते हैं। मेरे इस लेख में महिलाओं के लिए सहानुभूति के साथ-साथ उनसे एक सवाल भी है। ज़माने से ये बात चली आ रही है कि महिला ही महिला की दुश्मन होती है। क्या ये बात सही हैं। आज सुबह अखबार में जब उड़ीसा की इस ख़बर पर नजर गई तो रूह काँप गई... महिलाओं ने अपनी ही चुनी हुई महिला सरपंच को नंगा कर दौड़ाया.. घटना उड़ीसा के बरगढ़ जिले के चिरौली गांव की है। सड़क निर्माण के काम का जायजा लेने गई महिला सरपंच से कुछ स्वयं सहायता समूह की महिला कार्यकर्ताओं से बहस हो गई.. और इन महिलाओं ने महिला सरपंच के कपड़े उतार दिए.. पीड़ित महिला ने किसी तरह एक घर में घुस कर अपनी लाज बचाई। इस ख़बर को पढ़ने से लगा की क्या हो गया है हमारे समाज को.. किस दिशा में जा रहा है हमारा समाज। कई पुरुषों को तो इस बात का दंभ है ही कि वो बेहतर है। और, यही वजह है कि महिलाओं पर पुरुषों के अत्याचार और अन्याय की बातें आम हो गई है। लेकिन, इस तरह से महिलाओं का ही महिला के साथ दुर्व्यवहार... ये किस बात को प्रदर्शित करता है... इस हालत में एक दूसरे का साथ देने के बजाय इस तरह की घटनाएँ बेहद शर्मनाक है।

मीडिया: क्या आतंकियों का अंजान मददगार....

पिछले एक हफ़्ते से नेशनल ज्योग्राफ़िक चैनल पर रात आठ बजे दुनिया में फैले आतंकवाद और आतंकवादियों पर बनाई गई विशेष डॉक्यूमेन्ट्री सीरिज़ दिखाई जा रही है। जिसमें कि रूस में हुआ चैचन्याई आतंकियों का थियेटर पर किया गया हमला, अमेरिकन आर्मी में अल-कायदा के एजेंट की कहानी के साथ-साथ नाइन इलेवन की घटना भी शामिल है। इस पूरी डॉक्यूमेन्ट्री सीरिज़ को देखने के बाद पता लगता है कि कैसे आतंकी अपना काम करते हैं और उसे फैलाते हैं। यहाँ फैलाव का मतलब आतंक के ख़ूनी फैलाव के साथ-साथ मानसिक फैलाव भी है। आतंकी अपनी आंतकी घटनाओं को बार-बार दुनिया को दिखाना चाहते हैं। जिससे कि उनके मन में उनका ख़ौफ़ बढ़ता जाए। सरकारें घबरा जाए। और, ये सब होता है मीडिया के ज़रिए। इसी सीरिज़ में दो फ़्रेन्च पत्रकारों के अपहरण को भी दिखाया गया। जोकि केवल और केवल इस लिए हुआ था कि वो पत्रकार मीडिया के उपकरणों(कैमरा, एडीट मशीन) को चलाना जानते थे। आतंकियों ने दोनों को बिना नुक्सान पहुंचाए छोड़ दिया था। क्यों... क्योंकि उनका मक़सद था मीडिया के ज़रिए लोगों तक पहुंचना उन्हें डराना। ऐसा ही हुआ था रूस में हुए थियेटर पर हमले में। आतंकियों ने मीडिया को अंदर आने दिया। उनसे बात की और ये कहा कि लोग हमसे डरे... एक अमेरिकी रक्षा विषेशज्ञ ने माना कि मीडिया कई बार अंजाने में ही आतंकियों के हाथ का खिलौना बन जाता है। वो आतंकियों की घटनाओं को बार-बार दिखाता हैं, महिमामंडित करता हैं और आतंकियों को एक तरह से सपोर्ट देता हैं। शायद भारत में भी यही हो रहा है। लगातार उस फ़ुटेज को दिखाते रहने से लोग डर रहे हैं। टेटर डिस्लेक्यिया नाम की नई बीमारी का शिकार हो रहे हैं। मुबंई का लाइव कवरेज सही हो सकता है, उसका विश्लेषण भी सही हो सकता है, लेकिन, क्या उस आतंकी घटना को बार-बार लगातार दिखाना सही हैं.....

औक़ात में रखनेवाले...

यार ये तो वही है जो महिलाओं के बारे में बकवास करती रहती है। ये कहते ही मेरे कान खड़े हो गए। स्वभाव और आवाज़ दोनों में ही मैं तेज़ हूँ। और मैंने कहा हाँ ठीक ही है, महिलाएं, उनके मुद्दे और उन पर बात करने वाले सभी बकवास ही होते हैं। ये बात कुछ दिनों से मेरे सामने लगातार आ रही है, कि महिलाओं के मुद्दे की बात होते है ही युवकों के मन उत्तेजित हो जाते है। वो बिफर जाते हैं। कुछ दिन पहले ही बातों बातों में अचानक ही मैंने एक महिला मीडिया कर्मी की बात का समर्थन कर दिया। उनका कहना था कि क्यों ऐसा नियम है कि अगर करियर को घर के लिए छोड़ना है तो वो महिला ही करें। पुरुष ना करें। अपने दोस्तों के बीच मैंने ये कई बार सुना कि हम तो एक ऐसी लड़की से शादी करेंगे जो घर में रहे। या कुछ ऐसा कि दिल्ली की लड़कियाँ तो कमाने लगती है तो उन्हें काम करने में शर्म आने लगती हैं। मेरा एक दोस्त आईआईटी से पढ़कर अब आईआईएम से एमबीए कर रहा है। वो एक हाऊस वाईफ चाहता है। मैंने पूछ दिया कि फिर क्या किसी कम पढ़ी लिखी लड़की से शादी करोगें। वो बोला नहीं । फिर क्यों वो नौकरी ना करें। अगर घर और बच्चों का सवाल है तो तुम भी तो नौकरी छोड़ सकते हो। इस बात पर सबके मुंह बन जाते है। सब चुप हो जाते है। ऐसा लगता है मानो मन ही मन सोच रहे हो भगवान इसके होने वाले पति को संबल दे। ये सोच है मेरे आस पास के पढ़े लिखे युवा की। जो नहीं चाहता है एक ऐसी लड़की जो काम करें। एक का मानना है कि नौकरी पेशा लड़की उंची आवाज़ में बात करती है। घर के काम करने से कतराती है। मेरा ये दोस्त बिस्कुट खाकर रोज़ सोता है। क्योंकि असमें आफिस से आने के बाद इतनी हिम्मत नहीं रहती है कि वो कुछ खाने के लिए बना सकें। ऐसे में उसे ये कहने में कुछ महसूस नहीं होता है कि पत्नी अगर नौकरी करें तो क्या घर के काम भी करें। शायद इनकी ये सोच है कि लड़कियाँ मशीनें है जो सब कुछ कर सकती हैं। मेरे मन में एक अजीब सी चिढ़ घर करती जा रही है। ऑफ़िस में लड़कियों से हंस हंस कर बात करने वाले । गर्लफ़्रेन्ड को स्टेटस सिम्बल समझने वाले ये लड़के आखिर क्या चाहते हैं। खुद 21वीं सदी में जीना और घर में रहने वाली को 10 वीं सदी में रखना चाहते हैं। मेरा एक दोस्त एक अखबार की संपादकीय में काम करता है। कुछ दिन पहले दिल्ली आया तो पुरानी बातें छीड़ी कि कॉलेज में क्या क्या हुआ। कॉलेज के वक़्त का उसका प्यार अब भी उसके मोबाईल में सेव है। वो आज भी उस लड़की की ख़बर रखता है और उसकी बाते करता है। लेकिन जब बात शादी की होती है तो अपने घर की मर्यादा बताने का अंदाज़ कुछ ऐसा कि मेरा सर चकरा जाता है। वो कहता है कि मेरी भाभी शादी के 8 साल बाद पहली बार दिन में छत पर गई थी। वो भी बबुआ के साथ उसे खेलना जो था। शहर में तो मैं रहूंगा वो तो माँ बाप की सेवा करेंगी। आखिर क्या चाहते है ये नई पीढ़ी के महानुभाव। ऐसे लोगों को मैं अपनी ऊंगलियों पर गिन सकती हूँ जो ये कहते है कि हम अपनी पत्नी का साथ देंगे या जो सच में ऐसा कर रहे हैं। आधुनिकता का चोंगा पहन कर ये आखिर क्या कर रहे हैं। कुछ समझ नहीं आता है। लड़कियाँ ऑफ़िस में कम काम करती हैं। काम चोरी करती हैं। बस में सीट के लिए झगड़ती हैं। ऊंची आवाज़ में बात करती हैं। ये वही लड़कियाँ हैं जो मासिक चक्र के दौरान भी भरी बस में चढ़कर ऑफ़ीस जाती हैं। वहाँ दिनभर काम करती है और घर आने पर पूरा काम करती हैं। ये वही लड़कियाँ है जो बस में चढ़े चंचल नौजवानों की फ़ब्तियाँ सुनती हैं। ऑफ़ीस में कई पढ़े लिखें साथियों की बेहूदा बातें सुनती हैं। घर में घरवालों की सुनती है और बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी निभाती हैं। बावजूद इसके उन्हें चाहिए कि वो चुप रहे। रातों को जागकर पढ़े ज़रूर, लड़कों को पढ़ाई में पछाड़े ज़रूर लेकिन नौकरी ना करें। नौकरी करें अगर तो महीने का कोई भी दिन हो बस में सीट के लिए लड़ाई ना करें। ऑफ़ीस में भाग भागकर काम करें। घर पर भी काम करें। ये तो धर्म है हमारा। ये सब कुछ करें और चुप रहे।
स्लम डॉग मिलेनियर - आजकल हर जगह इसी फ़िल्म के चर्चे हैं। अगर मैं सही हूँ तो इस अंग्रेजी नाम का हिन्दी होना चाहिए - गली का कुत्ता करोड़पति या फिर गंदी गली का कुत्ता करोड़पति। फ़िल्म बेहतरीन बनी है और इसे अवार्ड मिलना भी शुरु हो चुके हैं। विदेशियों से मिलनेवाले इन अवार्डों की संख्या अभी और बढ़ने की उम्मीद हैं। इस फ़िल्म को देखते हुए कइयों को ये लग सकता हैं कि मैं भी ऐसा ही एक गली का कुत्ता हूँ। लेकिन, बहुत गिने चुनों को ये भी साथ में लगेगा कि मैं करोड़पति भी हूँ। क्योंकि हमारी गलियों में कुत्ते तो बहुत हैं, लेकिन सफल कितने हैं ये पता नहीं...इस फ़िल्म के ज़रिए ये बताया गया हैं कि कैसे गंदी बस्ती में रहनेवाला एक लड़का कौन बनेगा करोड़पति जीतकर रातों रात करोड़पति बन जाता हैं। लेकिन, मेरी सोच मुझे कही ओर ले जाती हैं। हमारे देश में यूँ रातों रात अमीर और मशहूर होने की बात बहुत पुरानी नहीं हैं। कौन बनेगा करोड़पति या फिर इंडियन आइडल जैसी बातें बस कुछ दसेक साल पुरानी ही हैं। इससे पहले यूँ रातों रात सफलता किसी को नहीं मिली। साथ ही ये इन्टेन्ट सफलता लोगों को ग्लैमर के जिलेटिन में लिपटी हुई मिलती हैं। जहाँ लोगों को देश की आवाज़ और हार्ट थ्रोब और ऐसे ही बड़े-बड़े नामों से पुकारा जाता हैं। लेकिन, टीवी से गायब हो जाने के बाद इन लोगों का क्या होता हैं कोई नहीं जानता हैं। जैसे ही सीज़न टू स्टार्ट होता हैं, नई खेप देश की आवाज़ और हार्ट थ्रोब हो जाती हैं। वैसे भी अगर इस ग्लैमरस जिलेटिन में लिपटे कामयाब लोगों की लिस्ट तैयार की जाए तो शायद ही दो से ज्यादा लोगों के नाम याद आए। करत करत अभ्यास से जड़मति होत सुजान जैसे जुमले अब किसी को पसंद नहीं। अब तो गायक बनने के लिए आपको लुक इम्प्रोवाइज़ करना पड़ता हैं, मेक ओवर करना पड़ता हैं। अब अभ्यास कोई नहीं करना चाहता हैं। इंतज़ार का फल मीठा होता हैं। लेकिन, आज भले ही खट्टा फल मिले बस हमें जल्दी मिल जाएं। सभी होड़ में हैं इन्टेन्ट सफलता के.... अपने एक कार्यक्रम के दौरान मेरा मिलना एक ऐसे व्यक्ति से हुआ जोकि 8 बार फेल होने के बाद जज बना। इस दूध बेचनेवाले के बेटे से जब हम मिलने गए तो वो दूध बेचकर लौट रहा था। चेहरे पर एक भी शिकन नहीं थी। बातचीत के दौरान एक भी बार ये नहीं लगा कि वो फ़्रेटेशन में है। खुश मिजाज़ हंसता मुस्कुराता आदमी। बेहद खुश कि उसकी मेहनत रंग ले आई। शायद किसी दिन किसान का ये बेटा भी स्लम डॉग से उठकर देश के पीड़ितों को न्याय दिलानेवालों में से एक बन जाएगा। लेकिन, उसकी ये सफलता विशुद्ध मेहनत की कमाई होगी। ऐसी ही है रानी। जोकि अपनी माँ के साथ दिल्ली के ट्रैफ़िक सिग्नलों पर बैठकर गुब्बारे बेचती थी। लेकिन, आज वो लड़की एक गैरसरकारी संस्था के साथ मिलकर स्लम में रहने वाले बच्चों को पढ़ाती हैं। बातचीत के दौरान कभी भी उसके चेहरे पर शिकन नज़र नहीं आई। बीच में ज़रूर उसने कहा कि मैं ऐसा क्या कर रही हूँ जोकि मुझे कोई देखे। इंडियन आइडल और रोडिज़ के ज़रिए सफल और लोकप्रिय होने की चाहत रखने वाले मेरे साथी शायद ही रेखा और लोकेश से प्रेरित हो। फ़िल्म बेहतरीन हैं लेकिन वो भी कही न कही युवा वर्ग के मन में फ़ेन्टेसी लैन्ड बना देती हैं। फ़िल्म की इसमें कोई गलती भी नहीं है आखिर वो अपने आप में एक कहानी है जोकि काल्पनिक होती ही हैं। लेकिन, गूढ़ बात ये हैं कि ये कहानी असलियत से प्रेरित से। और, ये असलियत इतनी खोखली है कि वो इंसान को खुद में कुछ ऐसे निगल जाती हैं जैसे कि कोई ब्लैक होल। स्लम डॉग मिलेनियर हो या फिर फैशन, ये फ़िल्में न सिर्फ़ व्यवसायिक रूप से सफल हैं बल्कि आँखें खोलने वाली भी हैं। हालांकि पता नहीं कितनों ने फ़ैशन में प्रियंका के किरदार के कपड़े और लुक को याद रखा और कितनों ने उसके स्ट्रगल और ज़िदगी के थपेड़ों को। आखिर मेंमेरी नज़रों में पटना के सुपर 30 में पढ़ाई कर आईआईटी तक पहुंचे बच्चे या फिर रेखा और लोकेश की तरह मेहनतकश स्लम डॉग ही असली मिलेनियर हैं। भले ही उन्हें पूरा जीवन लगा देने पड़े करोड़ रुपए कमाने में। लेकिन, कमाई की एक-एक पाई उनकी मेहनत की होगी बिना किसी ग्लैमरस और लीजलिजी जिलेटिन के...
सिंगारम में पुलिस के साथ कथित मुठभेड़ में मरे गए नाक्साली है या नही इस मामले को लेकर दावे प्रतिदावे शुरू हो गए हैं
पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी ने आज पत्रकार वार्ता लेकर इसे फर्जी मुठभेड़ कहा और घटना की सीबीआई जाँच की मांग की हैं
इस घटना में १५ लोग मरे गएँ हैं जिन्हें दंतेवाडा पालिक नाक्साल्वादी बता रही हैं इसे लेकर स्वयं सेवी संस्थाए भी सामने आ गई हैं गोलापल्ली ठाणे का घेराव करने के बाद अब वे इस मामले को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाने की तैय्यारी कर रहे हैं